चंद्रशेखर जोशी/विकास कुमार।
उत्तराखण्ड निर्माण आंदोलन के दौरान हरिद्वार को उत्तराखण्ड का हिस्सा बनाने या ना बनाने को लेकर हरिद्वार में दोनों पक्ष आमने सामने थे। हालांकि हरिद्वार को उत्तराखण्ड का हिस्सा बनाया गया और हरिद्वार को अलग करो कहने वाला समूह अब उत्तराखण्ड में हरिद्वार जो बाद में मैदान शब्द में तब्दील हो गया के अधिकारों की आवाज उठाते हुए राजनीतिक लामबंदी करने लगा। मैदान की इस राजनीति का झंडा उठाया हरिद्वार के पूर्व विधायक और तब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अंबरीष कुमार ने। हालांकि उत्तराखण्ड बनने के बाद हुए 2002 में हुए पहले चुनाव में अंबरीष कुमार हरिद्वार और लालढांग से चुनाव लडे लेकिन दोनों जगह ही वो बुरी तरह हारे। फिर भी सपा के झंडे तले उन्होंने हरिद्वार यानी मैदान के अधिकारों की बात उठाते हुए लामबंदी जारी रखी और 2004 में अर्धकुंभ के दौरान पुलिस और स्थानीय व्यापारियों के बीच हुए विवाद को भुनाते हुए अंबरीष कुमार ने हरिद्वार राजेंद्र बाडी को सपा के टिकट से सांसद बनवा दिया। लेकिन उसके बाद तमाम घटनाक्रम हुए जिसके चलते अंबरीष कुमार ने मैदान की राजनीति या कहें पहाड विरोधी राजनीति से पूरी तरह किनारा कर लिया और कांग्रेस में चले गए। कुछ लोग इस कदम को अंबरीष कुमार की बडी गलती मानते हैं तो कुछ उन पर अवसरवाद की राजनीति का आरोप लगाते हैं। हालांकि 2004 में मैदान पहाड की राजनीति के बल पर सांसद का चुनाव जिताने वाले अंबरीष कुमार ने मैदान की राजनीति क्यों छोडी और उसके बाद उनकी हरीश रावत से दुश्मनी क्यों हो गई, इस बार में हमने वरिष्ठ पत्रकारों से बात की।

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मैदान—पहाड़ के मुद्दे में जान नहीं बची थी
वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब हरिद्वार के पूर्व अध्यक्ष राजेश शर्मा ने बताया कि शुरु में हरिद्वार के लेागों को ये लग रहा था कि उत्तराखण्ड में उनके साथ पक्षपात होगा। लेकिन 2004 में हरिद्वार में सिडकुल की स्थापना और अन्य विकास कार्यों के होने से ये मुद्दा लोगों के बीच प्रासंगिक नहीं रह गया। लोगों को लगा कि सारा काम हरिद्वार में हो रहा है और यूपी के जमाने के हाल हरिद्वार ने देखे थे लिहाजा अंबरीष कुमार के मैदान की राजनीति से पीछे हटने का ये एक बडा कारण मुझे लगता है। हालांकि आज के हालातों में शायद अंबरीष कुमार जैसा नेता अपने बैनर तले एक दो विधायक जिताने में कामयाब जरुर हो जाते।
वरिष्ठ पत्रकार रतनमणी डोभाल ने बताया कि असल में पहाड—मैदान का मुद्दा शुरु में था लेकिन बाद में आर्थिक उन्नति के चलते ये मुद्दा ही नहीं बन पाया। हालांकि अंबरीष कुमार हरिद्वार में किसान और मजूदरों की बात उठाते हुए अपनी राजनीति जारी रख सकते थे लेकिन वो कांग्रेस में शामिल हो गए, जो मुझे लगता है कि अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा था। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों की ही उत्तराखण्ड को लेकर एक जैसी सोच और राजनीति देखने को मिलती है जो राज्य के पक्ष में तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब के महामंत्री अश्वनी अरोडा ने बताया कि अंबरीष कुमार ने मैदान की राजनीति का मुद्दा छोडा ये उनकी सबसे बडी गलती थी। मेरा मानना है कि कोई भी मुद्दा समय के साथ तेज या हल्का हो सकता है लेकिन जल्दबाजी में अंबरीष कुमार का लिया गया कदम हरिद्वार की राजनीति को नुकसान पहुंचा गया। आज की स्थितियों में अंबरीष कुमार इस मसले पर अच्छी राजनीति कर सकते थे।

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अंबरीष कुमार मैदान की राजनीति से इसलिए पीछे हटे, बोले मुरली मनोहर
अंबरीष कुमार के करीबी साथी मुरली मनोहर ने बताया कि हम मैदान के अधिकारों की लडाई लड रहे थे। अंबरीष कुमार कभी भी पहाड विरोधी नहीं रहे और ना ही उत्तराखण्ड विरोधी थे। वो दोनों जगह अन्याय के विरोध में थे। हम चूंकि हरिद्वार में राजनीति कर रहे थे तो हमने हरिद्वार की आवाज उठाई। लेकिन जब जनता ने हमारा साथ नहीं दिया तो अंबरीष कुमार ने सामूहिक राय मशविरा से इस मुद्दे से पीछे हटने का फैसला किया। उन्होंने कहा कि जब जनता ही अपना अधिकार नहीं लेना चाहती तो हम क्या कर सकते थे। इसीलिए 2011 में कांग्रेस ज्वाइन कर ली थी।
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हरीश रावत से क्यों हुई दुश्मनी
2007 में समाजवादी पार्टी से विधानसभा का चुनाव लडने और 2009 में लोकसभा का चुनाव लडने और हारने के बाद अंबरीष कुमार ने समाजवादी पार्टी छोड दी और 2011 में कांग्रेस ज्वाइन कर ली। तब हरीश रावत ही अंबरीष कुमार को पार्टी में लाए थे। अंबरीष समर्थकों का कहना है कि तब हरीश रावत ने 2012 में टिकट देने का वायदा किया था और तब टिकट मिल जाता तो अंबरीष कुमार सौ प्रतिशत जीत जाते। लेकिन टिकट नहीं मिला और अंबरीष कुमार कांग्रेस से अलग होकर निर्दलीय मैदान में उतर गए और हालांकि भाजपा के आदेश चौहान से कडे मुकाबले में हार गए। इस चुनाव के बाद हरीश रावत से उनका छत्तीस का आंकडा हो गया। वरिष्ठ पत्रकार राजेश शर्मा बताते हैं कि ये सही है कि उस समय कांग्रेस से टिकट मिला होता तो अंबरीष कुमार विधायक होते लेकिन राजनीति में मनचाहा नहीं होता है। खैर उसके बाद हरीश रावत से रिश्ते अच्छे नहीं रहे और बाद कभी अच्छे कभी खराब होते रहे।
