रतनमणी डोभाल।
बेटियां पढ़कर क्या करेंगी, बस इंटर पास कराकर घर बिठा दो, अच्छा ग्रेजुएशन करा दिया तो अब बाहर पढ़ाई के लिए मत भेजो, जल्दी से इनकी शादी कर दो, कुछ उंचनींच हो गया तो क्या मुंह दिखाओगे…ये वो सवाल थे जिनसे ग्रामीण क्षेत्र से आने वाली हरिद्वार की उन दो बेटियों और उनके माता—पिता को अक्सर दो—चार होना पड़ता था, जिन्होंने जज बनकर उनका नाम रोशन किया है। यही नहीं इन दोनों बेटियों के सामने अपने इर्द—गिर्द बने समाज की उस दकियानूसी सोच को बदलने की भी जिम्मेदारी थी जिसके कथित रहनुमाओं ने कभी समाज में तालीम का माहौल बनने नहीं दिया। लेकिन बेहद आम परिवारों से आने वाली इन दोनों बेटियों ने तमाम चुनौतियों का जवाब उत्तराखण्ड पीसीएस जे परीक्षा पास करके दिया। अब ये दोनों बेटियां उन हजारों लाखों युवाओं के लिए एक आशा हैं जो एक बेहतर, शिक्षित समाज बनाने की उम्मीद अपनी आंखों में संजोए हुए हैं। आयशा फरहीन और जहांआरा अंसारी दोनों में एक और समानता हैं दोनों की शुरूआती तालीम सरकारी स्कूल से हुई और दोनों ने ही सीमित संसाधनों और हिंदी माध्यम में की गई पढ़ाई को कभी बाधा नहीं समझा और सबसे महत्वपूर्ण उन्होंने परीक्षा पास करने के लिए कहीं कोचिंग भी नहीं की।
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आयशा घर में बड़ी थी और मां बहुत बीमार, रिश्तेदार बोले बेटी को मत पढ़ाओ
रूड़की से करीब चार किमी दूर मुस्लिम बाहुल्य शाहपुर गांव की रहने वाली आयशा फरहीन अपने छह भाई—बहनों में सबसे बड़ी हैं। आयशा के पिता रूडकी कोर्ट में एक वकील के पास बतौर मुंशी काम करते हैं। गांव के प्राथमिक पाठशाला से शुरूआती तालीम हासिल की और बाद में एक दूसरे स्कूल में दाखिला लिया लेकिन मां बेहद बीमार रहने लगी। एक तरफ हाई—स्कूल में खुद की पढ़ाई का जिम्मा था तो दूसरी ओर छोटे भाई—बहनों की देखरेख और घर का चूल्हा—चौका की जिम्मेदारी। आयशा बताती हैं कि मैं पहले अपने छोटे भाई—बहनों को तैयार कर स्कूल भेजती थी और बाद में घर का नाश्ता बनाकर, अम्मी को दवाई देकर खुद स्कूल जाती थी। रिश्तेदार अक्सर कहते थे कि बड़ी बेटी हैं इसे मत पढ़ाओं घर का काम संभाल लेगी। लेकिन मेरा पिता ने ठान लिया था कि अपने बच्चों को अच्छी तालीम देनी है। इसलिए मैंने भी खूब पढ़ाई कि और हाई स्कूल व इंटर में पहला स्थान हासिल किया। इसके बाद ग्रेजुएशन में भी अव्वल रही और एलएलबी में भी अच्छे मार्क्स हासिल किए। इस दौरान अक्सर रिश्तेदार और समाज के लोग तरह—तरह की बातें करते रहे लेकिन मेरी माता—पिता ने मुझे पूरा सपोर्ट किया। उन्होंने बताया कि जब एलएलएम के लिए मुस्लिम अलीगढ़ युनिवर्सिटी में दाखिला मिला तो रिश्तेदार घर आए और कहा की बेटी को बाहर मत भेजो। कुछ अच्छा बुरा हो गया तो क्या करोगे। लेकिन पिता का विश्वास मेरे साथ था और एलएलएम की परीक्षा पास करने के तुरंत बाद ही पीसीएस जे के लिए आवेदन कर दिया। मेरा ये पहला प्रयास था और मां—बाप की दुआओं से मुझे पहले ही प्रयास में सफलता मिली। आयशा के छोटे—भाई बहन भी आज अच्छी तालीम हासिल कर रहे हैं।
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पत्रकार बनने का विरोध हुआ तो जहांआरा ने जज बनकर सबका मुंह बंद कर दिया
जहांआरा अंसारी हरिद्वार के मुस्लिम बाहुल्य सराय गांव से आती हैं, उनके पिता लघु किसान हैं। जहांआरा ने लक्सरी गांव के प्राथमिक पाठशाला में शुरूआती तालीम हासिल की और ग्रेजुएशन करने के बाद इन्होंने टीवी पत्रकारिता करने का मन बनाया। इसके लिए पिता ने जहांआरा को देहरादून भेजा लेकिन समाज ने जहांआरा की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिये और शुरूआत हुई रिश्तेदारों से। बहरहाल, जहांआरा ने पत्रकारिता को तो अलविदा कह दिया लेकिन डीएवी कॉलेज में एलएलबी में दाखिल ले लिया। लोगों को दिक्कतें यहां भी थी लेकिन जहांआरा ने ठान लिया था कि अपने पिता के सपनों को साकार करने लिए वो कड़ी मेहतन करेंगी। जहांआरा ने बताया कि उन्होंने पीसीएस जे परीक्षा पास करने की ठान ली थी और इसके लिए उन्होंने खूब मेहनत की। पहले प्रयास में उन्होंने प्री परीक्षा पास की लेकिन वो मुख्य परीक्षा पास नहीं कर पाई। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और लगातार मेहनत करती रही। दूसरे प्रयास में उन्होंने प्री भी पास किया और मुख्य परीक्षा भी और इंटरव्यू पास करके वो जज बन गई। तीन भाई—बहनों में घर में सबसे छोटी जहांआरा को भी अपने इर्द—गिर्द समाज और आस—पास पढ़ाई का माहौल नहीं मिला लेकिन उन्होंने उनके माता—पिता और दोनों भाईयों के विश्वास और सपोर्ट के कारण विपरीत हालातों में भी खुद को सकारात्मक बनाए रखा और इस मुकाम को हासिल किया।
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समाज और सोच को बदलने के लिए बदलाव तो लाना होगा
आयशा फरहीन और जहांआरा अंसारी बताती हैं कि आज समाज में खासतौर पर मुस्लिम समाज में शिक्षा को लेकर बदलाव की जरूरत है। हमें समाज में एक अच्छा माहौल बनाने की बेहद जरूरत है। समाज में तालीम का माहौल बनेगा तो तरक्की का रास्ता निकलेगा और हमारे साथ—साथ देश भी तरक्की करेगा। उन्होंने बताया कि ये मायने नहीं रखता कि आप सरकारी स्कूल से पढ़ें हैं या फिर आपका माध्यम हिंदी है। बल्कि आपके अंदर कुछ करगुजर जाने का जज्बा कितना है और आप अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं ये मायने रखता है। उन्होंने सभी युवाओं को संदेश देते हुए कहा कि समाज और रूढ़िवादी सोच को बदलना है तो खुद में बदलाव लाना होगा और ये बदलाव शिक्षित होने से ही आएगा।